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धुँआ (11) / हरबिन्दर सिंह गिल
Kavita Kosh से
यह धुआं बहुत जानलेवा है
उसने त्रस्त किया है
सदियों से, मेरी मां मानवता को
एक बहुत ही, दुःखदायी रोग से
और कहते हैं, हम उसे कुष्ट रोग ।
सोचो विडंबना, उस बेसहाय मां की
जो लगाना चाहती है गले
चूमना चाहती है, उसका मस्तिष्क होठों से ।
क्या बेमिसाल ममता है, मां की
निर्दोष होकर भी, समझती है दोषी अपने को
और मानव है बेखबर
अपने ही अपराधों से ।
अपराध, वह स्वयं ही है, जन्म दाता
इस कुष्ट रोग का, जो जानलेवा है ।
धर्म के नाम पर
फैला रहा है, धुआं ।