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धुँआ (21) / हरबिन्दर सिंह गिल

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मैं भी कितना पागल हूँ
धर्म ग्रंथों के होते हुऐ भी
इस धुऐं का चला हूँ , अर्थ बताने
धर्म ग्रंथ तो स्वयं एक ज्योति है ।

‘‘ज्योति जो सिर्फ आत्मा में जलती है
वरना धर्मग्रंथ एक कागज से
ज्यादा और कुछ नहीं’’ ।

इसलिए जब पढ़ते हैं, ये धर्म ग्रंथ
सिर्फ अपने मस्तिष्क से ही काम न लें
मस्तिष्क तो दुनियादारी का साधन है ।

ना ही अपने दिल से
प्रभावित हों
दिल में एक स्वाभाविक झुकाव होता है ।

यदि आत्मा का आंशिक योगदान है
निश्चय ही, जीवन में प्रकाश होगा
उसमें लौ ही होगी, चाहे थोड़ी ही हो
परंतु विश्वास रखो धुआं नही होगा ।