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धुन्ध में डूबी हुई सुबहें / मधु शुक्ला

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धुन्ध में डूबी हुई सुबहें
और कुहरे में ढकी ये शाम,
हो गए है ग़ुम कुहासों में,
रंग अम्बर के सभी अभिराम ।

धूप की सहमी हुई चिड़िया,
पंख अपने तोलती पल - छिन,
सो रहे दुबके रजाई में,
देर तक घुटने समेटे दिन ।
काम से हारा-थका सूरज
बादलों में कर रहा विश्राम ।

पातियाँ लेकर सिरहनों की
द्वार खटकाए हवाओं ने,
बन्द रखी खिड़कियाँ लेकिन
सोच में डूबी दिशाओं ने ।
लौट आईं द्वार पर धरकर,
फिर हवाएँ शीत का पैगाम ।

झील, नदिया, वन, पहाड़ों के
दृश्य सारे हो गए ओझल,
अब न काटे कट रहे ऐसे
दिन हुए बेरंग औ' बोझिल ।
आँच से आओ अलावों की
उँगलियों को दे तनिक आराम ।

झर रहे है स्वप्न रातों के,
फूल बनकर हरसिंगारों के,
एक ख़ुशबू सी लिए मन में
लौटती यादें चिनारों से ।
लौट आता साथ अधरों पर
अनकहे ही तुम्हारा नाम ।