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धूप के शावक / रामानुज त्रिपाठी

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धूप के शावक,
उतर कर सीढ़ियां-
चुपके-चुपके देहरी से द्वार आए।

अपाहिज परछाइयां
लगती थकन से चूर ,

चुप्पियों की गांठ
कोई फिर खुली
सप्त स्वर अधरों की खिड़की खटखटाए।

छोड़ आए थे जिन्हें
हम सरहदों के पार,
लौट आए वे समग्र
सवाल फिर इस बार

और हर एहसास
लेकर डुबकियां-
नफरतों की झील में फिर से नहाए।

तूलिका तो थक गई
रच कर अधूरा चित्र,
पूर्ण कर दे लेखनी
शायद अपूर्ण चरित्र।

अक्षरों की अर्चना में दिन कटे-
कटी रातें आरती की लौ जलाए।