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धूप में धुएँ की शख़्सियत / शील

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धूप में धुएँ की शख़्सियत देखते रहे लोग
साल पर साल बीत गए ।
फिट हो गया भ्रष्टाचार,
ब्रह्मा, विष्णु, महेश की तरह –
शाश्वत होकर ।

कुनमुनाती रहीं संजीवनी आस्थाएँ,
शृगाल-सभ्यता,
कुकुर-राजनीति,
लोकमंगल पर हुआ-हुआ करती रही,
धूप में धुएँ की शख़्सियत देखते रहे लोग ।

सामन्ती नैतिकता में पूँजी का प्रजातन्त्र,
दुहाई देता रहा –
भारत महान है ।

ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण,
भुजा से क्षत्रिय,
पेट से वणिक,
पैरों से शूद्र पैदा होते रहे,
चीख़ती रही सुराज की आत्मा –
साम्प्रदायिक दंगों में ...
लहूलुहान ।

आर्यों का अर्थशास्त्र,
तुलसी का रामराज्य –
कलह के रक्त-कुण्ड में –
किस सीता को जन्म देगा ?
प्रश्न अनुत्तरित रहे ।