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ध्रुवान्त / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
चलते-चलते कहाँ आ गया, कैसी सीमा-रेखा
कुछ उत्साह नहीं बढ़ने में, पीछे राह नहीं है
यह सूखी-सी नदी; रेत में दुख की थाह नहीं है
देख रहा हूँ घना कुहासा, कभी नहीं जो देखा ।
जब भी पीछे मुड़ कर देखा, पाँव बढ़ गये आगे
आगे बढ़ा, तो पाँव मुड़ गये पथ को लिए-दिए ही
हाँ-ना कुछ भी बोल सका ना, मुँह को रहा सिए ही
कौन हृदय में ? पल भर सोए, पल भर में ही जागे ।
आखिर किसका साथ निभाऊँ, किसके साथ चलूँ मैं
कितना हूँ असमर्थ आज मैं, सोच नहीं पाता हूँ
सुर उतरे-से लगते जब भी कण्ठ खोल गाता हूँ
क्यों ताली बजने लगती है; जैसे हाथ मलूँ मैं ।
पर्दे के पीछे प्रकाश है, और मंच पर तम है
अंक, पात्रा, संवाद ही नहीं, अभिनय तलक अधम है ।