ध्वंस / दिलीप चित्रे
आदिल के लिए
मात्र पचास सालों में ही मेरे युवा दिनों के शहर की कई निशानियाँ
लुप्त हो गईं, ध्वस्त कर दी गईं । मिटा दी गईं या और भी बदतर कुछ
क्या मैं सचमुच आशा करता हूँ कि वे वैसी ही रहेंगी मेरी और तुम्हारी यादों में,
हमारे शब्दों में ?
हमने पुरज़ोर कोशिश की नक़्शों को बिम्बों और बिम्बों को नक़्शों में बदलने की
पर किसके लिए ? किस श्रोता, किस पाठक के लिए हमने इस सलीब को धारण
किया ?
हम ख़ुद ही इस देश काल में एक ध्वँसावशेष बनते जा रहे हैं
जो अब अपने इतिहास को भी धारण नहीं कर पाता
अब तो गिद्धों ने भी उस टावर ऑफ़ साइलेंस पर आना बन्द कर दिया है
जहाँ हमने अपने शरीर को अनन्त चक्र का भोज्य बनने के लिए रख देने की आशा
की थी
नग्न और मृत समय की सतह पर
कभी मैं यहाँ अजनबी था पर आशा से भरा हुआ
अभी भी बिना किसी आशा का अजनबी ही हूँ
सिवा समुद्र के उस परिचित मद्धिम रोदन
और अमरता की उस सहलाती हुई धारणा से ।