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न काया व्यर्थ जानी है / प्रेमलता त्रिपाठी
Kavita Kosh से
रहा अवशेष जीवन जो, न काया व्यर्थ जानी है।
अधूरी साधना है जो, हमें आगे बढ़ानी है।
करें हम कर्म ऐसा कुछ, जिसे देखें सयाना जग,
लगन मीरा नहीं जिसमें, कहाँ वह प्रीत मानी है।
जगायें दिव्य भावों को, न माया बाँधती मन को,
अलौकिक ज्ञान की महिमा, सदा होती रुहानी है।
प्रणय से हो अछूता मन, असंभव सृष्टि की रचना,
विधाता ने दिया अवसर, हमें रस्में निभानी है।
कहीं बदलाव हो कैसे, बढ़ा षड्यंत्र, अनहोनी,
नहीं कारण निवारण अब, बढ़े कैसे कहानी है।
लहर-सी दौड़ती मन में कहीं खुशियाँ न रूठे अब,
सुरक्षित हो हमारे घर नगर हर राजधानी है।
लगा कलिकाल हम पर जो, भ्रमित है आज जन जीवन,
तुम्ही अब राह दो भगवन, हमें गरिमा बचानी है।