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न जाने रोज़ कितनी बेबसी बर्दाश्त / देवी नांगरानी
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न जाने रोज़ कितनी बेबसी बर्दाश्त करते हैं
अगर सच पूछिये तो ज़िन्दगी बर्दाश्त करते हैं
किसीको क्या ख़बर जो हमपे गुज़री है मुहब्बत में
लहू के घूंट पीकर आशिकी बर्दाश्त करते हैं
ग़मों के मौसमों में चांद भी कितना अखरता है
कि रखकर दिल पे पत्थर चांदनी बर्दाश्त करते है
बड़े बेबस परिंदे हैं कि उनके पर कतरने पर
सितमरानी भी ये सैयाद की बर्दाश्त करते हैं
सुख़न फहमो का मैं एहसान कैसे भूलती ‘देवी’
जो मेरी बेतुकी-सी शाइरी बर्दाश्त करते हैं