भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नई-नई पोशाकें / निर्मला गर्ग
Kavita Kosh से
अन्न और रोज़गार का ज़िक्र उसे नहीं भाता
समता और न्याय गए दिनों की बातें हो गईं
व्यस्त है नई-नई पोशाकें छाँटने में
मेरी कविता इन दिनों
रचनाकाल : 1998