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नए कवि : आत्मोपदेश / अज्ञेय

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     शक्ति का मत गर्व कर
     तू उपशमन का कर,
     हीं रूपाकार को, उस में
     छिपा है सार जो, वह वर!

     अनुभूति से मत डर-मगर पाखंड उस के दर्द का मत कर :
     नहीं अपने-आप जो स्पन्दन डँसे
     तेरी धमनियों को, त्वचा की कँपकँपी से
     झूठ मत आभास उस का स्वय

     अपने को दिखाने की उतावली से भर!
     ग़ैर को मत कोंच तू पहचान अपनापन :
     चुनौती है जहाँ तू अविकल्प साहस कर :
     ‘यहाँ प्रतिरोध दुर्बल है, सुलभ जय’, सोच

     ऐसा, साहसिक मत बन।
     अभियान में जिन खाइयों में
     कूदना है, कूद : भरा है उन में अँधेरा इसलिए
     मत नयन अपने मूँद!

     दीठ की मत डींग भर : जो दिखा उस के बूझने की
     तू तपस्या कर :झाड़ मत पल्ला छुड़ा कर
     स्वयं अपने-आप से तू झर।
     प्यास पर तू विजय पा कर,

     और जो प्यासे मिलें, उन के लिए
     चुप-चाप निश्चल स्वच्छ शीतल
     प्राण-रस से भर।
     तू उसे देखे न देखे,

     झर रहा जो अन्तहीन प्रकाश-
     उसे माथा झुका कर पी :
     तू उसे चीन्हे न चीन्हे
     हो रहा जो प्राण-स्पन्दन चतुर्दिक गतिमान

     उस में डूब कर तू जी।
     तू उसे ओढ़े न ओढ़े
     व्याप्त मानव-मात्र में है जो विशद अभिप्राय
     तू न उस से टूट :
     भीड़ का मत हो, डटा रह, मगर

     दिग्विद पान्थ के समुदाय से तू
     अकेला मत छूट।
     एकाकियों की राह?
     वह भी है

     मगर तब जब कि वह
     सब के लिए तोड़ी गयी हो।
     अकेला निर्वाण?
     वह भी है

     अगर उस की चाह
     सभी के कल्याण के हित
     स्वेच्छया छोड़ी गयी हो।
     कहाँ जाता है, इसे मत भूल :

     कौन आता है, न इस को भी
     कभी मन से उतरने दे।
     राह जिस की है उसी की है।
     कगारे काट, पत्थर तोड़,

     रोड़ी कूट, तू पथ बना, लेकिन
     प्रकट हो जब जिसे आना है
     तू चुप-चाप रस्ता छोड़ :
     मुदित-मन वार दे दो फूल,
     उसे आगे गुज़रने दे।

सागर-दिल्ली (रेल में), 26 नवम्बर, 1958