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नकली-असली / राम सिंहासन सिंह
Kavita Kosh से
सुनते-सुनते तू थक गेलऽ
गइते-गइते हम न थकली।
मीरा के हल हाल यही जब
कहलक दुनिया उनका पगली।।
केकरा मन के बात बतइयो
कहाँ करेजा फाड़ दिखइयो?
कइसे कहाँ लगल हे मनुआँ
केकरा ओकर दरद सुनइयो?
दुनिया हे अपने में मातल
आपाधापी सगर मचल हौ
स्वारथ में सब उबल रहल हे
मनुआँ केकरो कहाँ तरल हौ?
सब चाहऽ हथ उनके गावी
उनके उनकर बात सुनावी
उनके पीछे-पीछे सब दिन
उनकर झँडा हम फहरावी।
लेकिन इ दुनिया से हट के
मनुआँ जाने कहाँ लगल हे?
ओकरे वंसी के धुन पर ई
सूतल मनुआँ तनिक जगल हे।
स्वारथ रस के बस मंे जे हथ
उनका कइसे हम समझइयो
अब तो अपने से बतियाही
दूसर के का बात बतइयो।
भक्ति-भाव के ई सिक्का के
दुनिया चाहे कह दे नकली
लेकिन जागल मन के आभा
कहतो हर दिन इकरे असली।