भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नगारो / कन्हैया लाल सेठिया
Kavita Kosh से
सुण लै थारी सींव कनै ही
बाजै कूच नगारो,
कायर लुकता फिरै सामनूं
मांडै़ कोई खारो ?
माटी रो गढ़, दस इनरयां रा
बण्या झरोखा बारी,
मन राजा नै विखै भोग में
जीव पदमणी प्यारी,
अणचेत्योड़ा चेत, काळ तो
पकड्यां आवै लारो,
सुण लै थारी सींव कनै ही
बाजै कूच नगारो।
डर डर पड़े पानड़ा पीळा
सूखै ताल तळायां
चांद गळै सूरजियो डूबै
हूवै तावड़ो छायां,
कद कोई नै छोड़ मरण-रथ
जावै लो परबारो,
सुण लै थारी सींव कनै ही
बाजै कूच नगारो।
काल काल के करै काल तो
काळ मतै ही आसी,
खोल पींजरो पकड़ सुवै नै
फटकारै लै ज्यासी,
लड्यां बिना ही तूं हारै लो
थारो मिनख जमारो।
सुण लै थारी सींव कनै ही
बाजै कूच नगारो।