भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नग्न महाराज / नीरेन्द्रनाथ चक्रवर्ती / देवदीप मुखर्जी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सब देख रहे हैं, महाराज नग्न है,
फिर भी सभी बजा रहे हैं तालियाँ
उच्च स्वर में बोल रहे सब कोई... शाबास, शाबास !

कोई संस्कारवश, कोई भय से
किसी-किसी ने गिरवी रख छोड़ी है अपनी बुद्धि
किसी और मनुष्य के पास..
कोई परजीवी, कोई कृपाप्रार्थी, उम्मीदवार, प्रवंचक।

कोई सोच रहा, राजा के वस्त्र वाकई बहुत महीन,
दिखाई नहीं देते, पर हैं,
और ऐसा होना वाकई असम्भव नहीं है ।

सभी जानते हैं यह कहानी
केवल प्रशंसक, कुछ-कुछ भयातुर अथवा निर्बोध भक्त मात्र नहीं थे
एक शिशु भी था वहाँ
सत्यवादी, सरल, साहसी एक शिशु ...

कहानी का राजा सच में उतर आया है रास्ते पर
रह-रहकर बज रही तालियों से
मजमा लग गया है भक्तों का
लेकिन इस भीड़ में आज
नहीं देख पा रहा हूँ उस शिशु को ...

कहाँ गया वह शिशु ? किसी ने क्या उसे
किसी पहाड़ की गुप्त गुफ़ा में
छिपाकर रखा है ?
या फिर पत्थर-घास-मिट्टी के साथ खेलते-खेलते
सो गया है वह
किसी दूर निर्जन नदी के किनारे, या फिर
किसी दूर प्रान्त में
पेड़ की छाया में ?

जाओ, जैसे भी हो
उसे ढूँढ़कर लाओ ...
वह आकर निर्भय खड़ा हो एक बार
इस नग्न महाराज के सामने

वह आकर एक बार
बजती तालियों के बीच
बस यह पूछ ले..
राजा, तेरे कपड़े कहाँ हैं ?

(1971)

मूल बांग्ला से अनुवाद : देवदीप मुखर्जी
 
अब यही कविता मूल बांग्ला में पढ़िए
              উলঙ্গ রাজা

সবাই দেখছে যে, রাজা উলঙ্গ, তবুও
সবাই হাততালি দিচ্ছে।
সবাই চেঁচিয়ে বলছে; শাবাশ, শাবাশ!
কারও মনে সংস্কার, কারও ভয়;
কেউ-বা নিজের বুদ্ধি অন্য মানুষের কাছে বন্ধক দিয়েছে;
কেউ-বা পরান্নভোজী, কেউ
কৃপাপ্রার্থী, উমেদার, প্রবঞ্চক;
কেউ ভাবছে, রাজবস্ত্র সত্যিই অতীব সূক্ষ্ম , চোখে
পড়ছে না যদিও, তবু আছে,
অন্তত থাকাটা কিছু অসম্ভব নয়।
গল্পটা সবাই জানে।
কিন্তু সেই গল্পের ভিতরে
শুধুই প্রশস্তিবাক্য-উচ্চারক কিছু
আপাদমস্তক ভিতু, ফন্দিবাজ অথবা নির্বোধ
স্তাবক ছিল না।
একটি শিশুও ছিল।
সত্যবাদী, সরল, সাহসী একটি শিশু।
নেমেছে গল্পের রাজা বাস্তবের প্রকাশ্য রাস্তায়।
আবার হাততালি উঠছে মুহুর্মুহু;
জমে উঠছে
স্তাবকবৃন্দের ভিড়।
কিন্তু সেই শিশুটিকে আমি
ভিড়ের ভিতরে আজ কোথাও দেখছি না।

শিশুটি কোথায় গেল? কেউ কি কোথাও তাকে কোনো
পাহাড়ের গোপন গুহায়
লুকিয়ে রেখেছে?
নাকি সে পাথর-ঘাস-মাটি নিয়ে খেলতে খেলতে
ঘুমিয়ে পড়েছে
কোনো দূর
নির্জন নদীর ধারে, কিংবা কোনো প্রান্তরের গাছের ছায়ায়?
যাও, তাকে যেমন করেই হোক
খুঁজে আনো।
সে এসে একবার এই উলঙ্গ রাজার সামনে
নির্ভয়ে দাঁড়াক।
সে এসে একবার এই হাততালির ঊর্ধ্বে গলা তুলে
জিজ্ঞাসা করুক:
রাজা, তোর কাপড় কোথায়?