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नजरिया / रेखा चमोली
Kavita Kosh से
जब मैं देखती हूँ उन्हें
विश्वास भरी मीठी नजरों से
तब पाती हूँ उन्हें
आत्मविष्वासी
हरदम नया करने को तत्पर
सवालों से जूझते
पाती हूँ उन्हें
अपने बेहद करीब
मानो मेरे ही कितने
हाथ-पैर, आंखे-कान उग आए हों
पर जब मैं देखती हूंँ उन्हें
उलाहना देखती अविष्वासी नजरों से
पाती हूँ उन्हें
संकोची, भयभीत, आत्महीन
मेरा उन्हें देखने का नजरिया
कितना कुछ जोड़ जाता है उनमें।