भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नज़र / सुरेन्द्र स्निग्ध

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक नज़र मुझपर भी डालिए, हज़ूर !

कहाँ-कहाँ से आए हैं हम
हम हैं प्रोफ़ेसर
हम हैं डाक्टर
हम हैं वायस चांसलर
हम हैं मेम्बर्स विभिन्न बोर्डों के
हम हैं गुण्डों के सरदार
हम हैं सीनियर गुण्डे
एक नज़र डालिए मुझपर
कहाँ-कहाँ से आते हैं हम आपके स्वागतार्थ इतनी दूर एरोड्रम पर
हफ़्ते में तीन-तीन बार !

नज़र डालने में
आपकी नज़र को तकलीफ़ हो सकती है
देखिए, मैंने कर दी है अपनी गरदन आगे
भीड़ में से एकदम अलग, देख रहे हैं न हमारी गरदन
नज़र घुमाने का भी कष्ट नहीं करना पड़ेगा हुज़ूर
सिर्फ़ नज़र तिरछी कीजिए
नज़र पड़ जाएगी
हमारी झुकी हुई गरदन पर ।

और कितना झुकाने को कहते हैं इसे
बेचारी कमानीदार तो है नहीं
कि झुककर जा लगेगी आपके घुटने तक ।