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नज़र लगी किस धृष्ठ की / रंजना वर्मा
Kavita Kosh से
नज़र लगी किस धृष्ठ की, हुआ घिनौना काम
चौराहों पर अर्थियाँ, होती अब नीलाम॥
चिनगारी आतंक की, देती मात्र विनाश।
आग सुलगती भूमि पर, प्राण करें संग्राम॥
राजनीति करने लगी, गति विकास की रुद्ध।
काटें निज आधार को, चाहें सुख आराम॥
केवल सत्ता के लिये, ऐसे हुए कृतघ्न
अन्य देश जा कर करें, मातृभूमि बदनाम॥
धर्म जाति या ईश की, करें नहीं परवाह
लूट लूट भरते रहे, जो अपने घर धाम॥
माया-ठगिनी नित्य ही, रचती नये वितान
भ्रमित पुरुष कब सोचता, होगा क्या परिणाम॥
त्याग दिया हरि का भजन, भुला दिये शुभ कर्म
लक्ष्मी लक्ष्मी जप रहे, अब जन आठो याम॥