नज़रों की नज़र उतारूँगा / माखनलाल चतुर्वेदी
माँ—लल्ला, तू बाहर जा न कहीं,
तू खेल यहीं, रमना न कहीं।
बेटा—क्यों माँ?
माँ—डायन लख पाएगी,
लाड़ले! नजर लग जाएगी।
बेटा—अम्मा, ये नभ के तारे हैं,
किस माँ के राज-दुलारे हैं?
अम्मा, ये खड़े उघारे हैं,
देखो ये कितने प्यारे हैं,
क्यों इन्हें न इनकी माँ ढकती?
क्या इनको नजर नहीं लगती?
माँ—बेटा, डायन है क्रूर बहुत,
लेकिन तारे हैं दूर बहुत,
उन तक जाने में थक जाती,
यों उनको नजर न लग पाती,
बेटा—माता ये माला के मोती,
जगमग होती जिनकी जोती,
क्या नजरें इनसे डरती हैं,
जो इनपर नहीं उतरती हैं?
माँ—हाँ, जब ये नन्हें थे जल में,
गहरी लहरों के आँचल में,
तब नज़र न लगा सकी डुबकी,
छाया भी छू न सकी उनकी।
बेटा—अम्मा, ये फूल सलोने से,
हरियाली माँ के छौने से,
क्यों बेली इन्हें नहीं ढकती?
क्या इनको नज़र नहीं लगती?
माँ—नजरों के पैर फिसल जाएँ,
फूलों पर नहीं ठहर पाएँ।
बेटा—ना, ना, माँ, मैं क्यों हारूँगा,
माँ, मैं किससे क्यों हारूँगा?
मैं दृढ़ हूँ, तन-मन वारूँगा,
मैं हँस-हँसकर किलकारूँगा,
नजरों की नजर उतारूँगा।
रचनाकाल: खण्डवा-१९२४