नज़्में..... / हरकीरत हकीर
१)
ज़िन्दगी इक ज़हर थी
जिसमें खुद को घोलकर
इन नज्मों ने
हर रोज़ पिया है
जिसका रंग
जिसका स्वाद
इसके अक्षरों में
सुलगता है
(२)
ज़ख्मों पर
उभर आए थे कुछ खुरंड
जिन्हें ये हर रोज़
एक-एक कर
उतारती हैं
(३)
इक हँसी
जो बरसों से कैद थी
ताबूत के अन्दर
उसका ये मांगती हैं
मुआवजा
(४)
कटघरे में खड़ी हैं
कई सवालों के साथ
के बरसों से सीने में दबी
मोहब्बत ने
खुदकशी क्यों की ....??
(५)
कुछ फूल थे गजरे के
जो आँधियों से बिखर गए थे
उन्हें ये हर रोज़
एक-एक कर चुनती हैं
(६)
शाख़ से झड़े हुए पत्तों का
शदीद दर्द है
जो वक्त- बे -वक्त
मुस्कुरा उठता है
चोट खाकर
( शदीद -तेज )
(७)
उन कहकहों का उबाल हैं
जो चीखें नंगे पाँव दौड़ी हैं
कब्रों की ओर
(८)
इक वहशत जो
बर्दाश्त से परे थी
इन लफ्ज़ों में
घूंघट काढे बैठी है
(९)
खामोशी का लफ्ज़ हैं
जो चुपके-चुपके
बहाते हैं आंसू
ख्वाहिशों का
कफ़न ओढे
१०)
जब-जब कैद में
कुछ लफ्ज़ फड़फड़ाते हैं
कुछ कतरे लहू के
सफहों पर
टपक उठते हैं
(११)
ये नज्में .....
उम्मीद हैं ....
दास्तां हैं ....
दर्द हैं .....
हँसी हैं ....
सज़दा हैं .....
दीन हैं .....
मज़हब हैं ....
ईमान हैं ....
खुदा .....
और ....
मोहब्बत का जाम भी हैं ....!!