नदियों के किनारे / राजेन्द्र उपाध्याय
मैं नदियों के किनारे पैदा नहीं हुआ तो क्या हुआ
नदियों की तलाश में बीत गया मेरा सारा जीवन।
नदियों के किनारे मेरा घर न हुआ तो क्या हुआ।
नदियों के किनारे पैदा होते हैं महापुरूष
महाकवि पैदा होते हैं
उनकी कविताओं में एक सरिता बहती है
मेरी कविताओं में बहती है आंसुओं की सरिता।
सरयु का नाम राम से, जमुना का कृष्ण से,
साबरमती का नाम गांधी से जुड़ा है।
अब गांधी से जुड़ी है साबरमती
कृष्ण के साथ बहने के लिए ही बहती रही जमुना
देवताओं के लिए ही धरती से निकली गंगा
सरस्वती अब केवल किताबों में बहती है।
मेरे साथ नहीं चली कोई नदी दूर तक
दो क़दम भी नहीं चली वह
मैं ही उसकी तलाश में भटकता रहा जन्म भर।
अगर कोई नदी साथ चलती तो ज़िन्दगी की नाम ठीक से चलती।
नदियों के पानी से अपने घाव धोते हैं शहीद
तो उनका पानी खून से लाल हो जाता है।
कोई मज़दूर जब उसमें डुबकी लगाता है
तो नदी उसके लिए अपना आंचल फैला देती है।
नदी अपने साथ बहाकर ले जाती है स्त्रियों के आंसु
इतनी ममतामयी नदी क्या कभी किसी पहाड़ से निकली थी
मैं अक्सर सोचता रह जाता हॅूं।
नदियाँ निकलती हैं स्त्रियों के भीतर के किसी उदास कोने से
तुम्हारे मलमली दुपटटे से निकलती है मखमली नदी
किसी पठार से नहीं, रेगिस्तान से नहीं
पत्थरों की किसी कंदरा से नहीं।
क्या तुमने नदियों की ममता ही देखती है
उनकी क्रूरता नहीं
उनका बिफरना नहीं जाना
उनका रौद्र रूप नहीं देखा
वे जब बिफरती है तो अपने साथ बहा ले जाती हैं किनारे
किनारों के सब मज़बूत वृक्ष उनके लावे में आते ही राख हो जाते हैं।
वे इतिहास की उलटी धारा में बहने लगती हैं
वे दशिाएँ बदल लेती हैं तबाही मचा देती हैं
और इतिहास और भूगोल सब बदल डालती हैं।
मेरी कविताओं में आओ ऐसी ही कोई नदी
अपने साथ लावा लेकर।