नदी, पत्थर और हवा/ प्रताप नारायण सिंह
प्रेम-
कभी एक बहती हुई नदी की तरह था,
जिसके जल में हमारी परछाइयाँ
अक्सर एक-दूसरे को छू लेती थीं।
हमने स्पर्श को चमत्कार समझा,
और नदी को अमरता का नाम दे दिया।
पर समय-
एक मौन पत्थर की तरह
नदी के बीच आकर बैठ गया,
धीरे-धीरे धारा की दिशा बदल गई।
पत्थर बिलकुल ठंडा हो चुका है
किन्तु उसकी सतह पर
हमारे नामों की परतें अब भी अटकी हैं।
हवा-
जो कभी गीत लेकर आती थी,
अब स्मृतियों की धूल उड़ाती है।
वह हमारे शब्दों को
सूखे पत्तों की तरह चरमरा देती है,
और हर बार लौटती है
थोड़ी अधिक पारदर्शी होकर।
नदी अब कहीं और बहती है,
वह बस सुनाई देती है, दिखती नहीं।
कभी उसकी गंध,
कभी उसका कंपन,
कभी हवा में उसका स्वाद
बस इतना ही बचा है।
पत्थर वहीं है,
और हवा अब भी चलती रहती है।
भूत, वर्तमान और मौन
तीनों एक ही वृत्त में घूमते रहते हैं,
जहाँ शांति भी एक हलचल है,
और स्मृति एक स्थिर जलधारा।