भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नदी / राकेश रंजन
Kavita Kosh से
मुझे सपने में दिखी
एक नदी
उसकी आँखों में भरे थे
झड़े और
सड़े हुए पत्ते और फूल
उनमें जमा था अपार
जंगल की यादों का अन्धकार
उसके पैरों में फैली थी रेत
और रेत, सिर्फ़ रेत
कन्धों पर शव लादे
अंगों पर हिंस्र मगरमच्छों के दिए हुए
ज़ख़्म लिए
खड़ी थी वह
टूट रही थी उसकी देह
हड्डियाँ उसकी
भारग्रस्त बजती थीं कट-कट
उसके वक्ष पर पड़े थे
अकालग्रस्त मछलियों के काँटे
और सिक्के
फेंके हुए हमारे
आसपास उसके
कहीं नहीं दिखता था जीवन का
कोई पदचिह्न
मुझे सपने में दिखी वह
बरसों से खोई-सी
सोई-सी चिता पर, पराई-सी, कोई-सी
उसके लबों पर न गिला, न फरियाद !
उसे देखा यों मैंने
महान् एक निद्रा के बाद !