भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नफ़स बेताब होता जा रहा है/ परमानन्द शर्मा 'शरर'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नफ़स बेताब होता जा रहा है
मुझे शायद कोई याद आ रहा है

फ़लक पर चाँदनी बिखरी हुई है
मेरे घर में अँधेरा छा रहा है

चला फिर कूचा-ए-जानाँ की जानिब
फ़रेबे-आरज़ू दिल खा रहा है

तुम्हारी अंजुमन में आज क्योंकर
मेरा तो जी घुटा-सा जा रहा है

भरी महफ़िल में दीवाना बना कर
मुझी से हाल पूछा जा रहा है

तुम्हीं थे इसकी बरबादी के बानी
तुम्हारा नाम दिल दोहरा रहा है

क़ज़ा को रास्ता दो चारासाज़ो!
मेरे ग़म का मदावा आ रहा है

‘शरर’ किस ख़ूब-रू से है लगाओ
तुम्हारा रँग निखरता जा रहा है