भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नर नारी की हो गई इक दिन / हरियाणवी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नर नारी की हो गई इक दिन आपस में लड़ाई
मो ते झगड़ा करके पिया सुख नहीं सोवगे।
चाकी भी चलावै जेघर धर के पानी ढोवेगो
जा लखन ते न खालेगी सिकी ते सिकाई
नर नारी की...
चुपकी रह बेहुद्दी ज्यादा बात न बनावै
मो बिन जी के न गोदी में छोरा खिलावै
पीर में रह लेती क्यों करवाया ब्याह सगाई
नर नारी की...
जै कहीं हो तकरार ले तूं लाठी का सहारो
धोती कमीज बिन रह जायेंगो उधारो
चाकी में आटे की हो जाये लहमा में पिसाई
नर नारी की...
हाथिन में हथफूल तेरो सोभा है बदन की
फेर भी बुराईदारी करे मरदन की
बे अंजन की रेल ठाडी चले न चलाई
नर नारी की...