भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नव-निर्माण / महेन्द्र भटनागर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं निंरतर राह नव-निर्माण करता चल रहा हूँ

और चलता ही रहूँगा !

राह -जिस पर कंटकों का

जाल, तम का आवरण है,

राह -जिस पर पत्थरों की

राशि, अति दुर्गम विजन है,

राह -जिस पर बह रहा है

टायफ़ूनी-स्वर-प्रभंजन,

राह -जिस पर गिर रहा हिम

मौत का जिस पर निमंत्रण,

मैं उसी पर तो अकेला दीप बनकर जल रहा हूँ,

और जलता ही रहूँगा !

आज जड़ता-पाश, जीवन

बद्ध, घायल युग-विहंगम,

फड़फड़ाता पर, स्वयं

प्राचीर में फँस, जानकर भ्रम,

मौन मरघट स्तब्धता है

स्वर हुआ है आज कुंठित,

सामने बीहड़ भयातंकित

दिशाएँ कुहर गुंठित,

विश्व के उजड़े चमन में फूल बनकर खिल रहा हूँ

और खिलता ही रहूँगा !

1948