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नव जीवन / अंतर्यात्रा / परंतप मिश्र

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जीवन के पथ पर,
चलता रहा निरंतर...
कुछ खोया कुछ पाया अनुभव
हर पल बहता हुआ
एक पवित्र नदी की तरह
हवा की भांति शीतल पर अदृश्य
फूलों की मादक गंध सा सुवासित
मैं स्वयं को इन सब में खोजता रहा
 
मैं कौन हूँ?
किसकी मुझे प्रतीक्षा है?
क्या है जीवन का उद्देश्य?
परन्तु समय पर मेरा नहीं नियंत्रण
फिर भी समय और मेरा जीवन चिर मित्र रहे हैं
उनमें एक सम्बन्ध है
दोनों एक साथ रहते हैं और एक दूसरे के पूरक हैं
  
समय के पलों में मेरा जीवन पूर्ण होता रहा
अतः मेरे जीवन ने समय को अपना मित्र मान रखा था
पलों के साथ जीवन का कर्म अबाधित चलता रहा
जीवन को एक एक पल में जीना
परन्तु यह क्या,पलों का आना जाना
एक पल भी पल भर के लिए न रुका
पल,पल के लिए आते और पल में चले जाते
 
यह कैसी मित्रता!
जीवन का समय के साथ कैसा स्थायित्व
दुःख हुआ और अश्रु बह निकले
हृदय विदीर्ण होकर हाहाकार करने लगा
मन व्यथित हो चला
सोचने लगा मेरे जीवन और समय की मित्रता
 
मैंने कहा “मित्र समय !
तुम बड़े ही निष्ठुर और कठोर हृदय हो
मेरा जीवन तुम्हारा मित्र रहा और तुमने
उसकी जरा भी परवाह न की
 
समय ने कहा “मित्र ! मैं स्वयम् प्रतिपल परिवर्तित हो रहा हूँ
मैं तो स्वयम स्थिर नहीं हूँ,
जो आज हूँ वह कल न रह हूँ
और जो कल था वह आज नहीं हूँ

मेरे मित्र ! जैसे साँसों की निरंतरता को तुम जीवन मानते हो
उसी तरह पलों की निरंतरता ही मेरा जीवन है
यह जीवन नहीं यह तो निरंतरता का प्रतिफल है
साँस और पल हम दोनों के जीवन का आभास है
तुम धड़कनों में जीते हो और मैं पलों में
मेरे पास तो अपना कोई आकार,शरीर और मन भी नहीं
तुम्हारे जीवन का तो एक अंत है,यात्रा की एक सीमा है
मेरी यात्रा तो अंतहीन है कालातीत है
 
मेरी और तुम्हारी मित्रता,कैसे संभव है?
कुछ पलों का साथ हो सकता मात्र अहसास सहभगिता का
जिसे तुमने मित्रता मान लिया होगा
मैं स्तब्ध हो गया उत्तर सुनकर।
 
जीवन में यह कैसा परिवर्तन
विचार की गहराइयों में उतरने लगा
मुझे अवसर मिला स्वयं से मिलने का
स्वयं की प्रतिमूर्ति मेरे अंतस में
शांत,प्रकाशित आनंदित मेरी प्रतीक्षा में
मैं भयभीत हुआ,भाग जाना चाहता था।

उसने मुझे रोका और कहा,
कहाँ जा रहे हो?
अब आ ही गए हो तो ठहर जाओ
और कितनी यात्राएँ करते रहोगे स्वयं से दूर होकर
इस नश्वर संसार में,
तृष्णा,दुःख और अनिश्चितता के सिवा कुछ भी नहीं है
इस जीवन में यह सब तुमने देख लिया
 
अब स्वयं को और मुझे पहचान लो
मैं तुमसे भिन्न नहीं हूँ,तुम्हारा अस्तित्व हूँ
कितने वर्षों से तुम्हारे भीतर बैठकर तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हूँ
अब न जाओ,मुझे पहचान लो
जीवन और मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाओ
अंतहीन यात्रा,जीवन की यात्रा का अंत कर दो
कितनी यात्रा,कितने जन्म
और कितना कष्ट भोगना चाहते हो?

सुनता रहा विस्मृत सा,स्व – बोध के शब्द
मैं समाप्त होने लगा, स्व अंत का प्रारम्भ हो चुका था
पल भर में सब कुछ समाप्त हो गया
अब मैं एक प्रकाश पुंज मात्र था – मेरी आत्मा
 
अब मैं अपनी आत्मा के साथ आनंदित रहता हूँ
सभी कुछ पूर्ववत् है दैनिक जीवन में
पर आसक्त नहीं हूँ,निष्काम कर्म करता हूँ
यह मेरे शरीर की समाप्ति का अनुभव रहा
मेरे लिए नया जीवन शरीर से परे
सर्वमुक्त।