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नव नचारी / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’

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शंकर! कहिया करब गोहारि,
भक्त अहाँक सदासँ मैथिल बैसल छथि ही हारि।
अपने मनसँ जन्मत बाड़ीमे जतबाजे भाङ,
लेत उपाडि, मना करबै तँ तोड़त दूनू टाङ।
कार्त्तिककेँ फुसियौलक गणपतिकेँ रहलनि परतारि॥
ऊँच नीचकेँ समतल करबाकेर लगाबय लाथ,
धूरा झोंकि आँखिमे लोकक अपन सुतारय हाथ।
पाड़ा खेत चरय, बसहाकेँ बैलाबय होहकारि॥
चालू शब्दक अनुप्रासमे भेल चकार लकार,
संस्कृत संगहि मैथिलीक कयने अछि बन्द बकार।
सरस्वती सहजहि मन्दिरमे छथि कटैत बपहारि॥
स्वतन्त्रता पयबालै गान्धीजीक रहनि हथियार,
राजनीतिक कुट्टी कटबामे भोथ बनौलक धार।
टी. भी. सँ बहसल नवतुरिया, देश न सकत सम्हारि॥
रखती गौरी सिंह सवारी से नहि करत सहाज,
आइ अरब सागरमे डूबय भारतकेर जहाज।
जाति-पाँति द्वारेँ समाजमे फाटल तेहन दड़ारि॥
समाधिस्थ भऽ बैसल रहने आब चलत नहि काज
फाँड़बान्हि हुरदुंग मचाबय अगिलगुआक समाज।
रहल असत्य पसारि, सत्यकेँ रहलनि घेँट ससारि॥
देवहुमे छी महादेव, कहबै छी अति प्रचीन,
देखू कते दखल कयने अछि अहुँक घड़ारी चीन।
भस्मासुरक जरोह अहूँकेँ रहल आइ ललकारि॥
अमरपुरदीक सहोदर कहबय धरतीपर कश्मीर,
जतय सतत सिहकैछ सुवासित शीतल शुद्ध समीर।
म्लेच्छ मत्त हाथी समान नन्दन वन रहल उजाड़ि॥