नहि, कोनो उपराग नहि देब / सुकान्त सोम
अपन पैंतीसम वसंतक अंतिम कड़ी
गनैत-गनैत बेर-बेर होइए
तरौनी जाइ आ
एकटा पुरना गीतक पाँति पकड़ि क’
सकुरी चल आबी।
खरंजा सड़क पर डगमग करैत
अपन इच्छा आकांक्षाकें
करेज पर धएने ओहि
पुरना एकबटियाक खोज करी
पैंतीस वर्ष पहिने
अहाँ जकरा धंगैत
गाम आ नगर
अपन आ हमरा बीच एकटा
सम्बन्ध कायम कएने होएब
एकटा इतिहास गढ़बाक अपन आकांक्षाकें
ठोस आकार प्रदान कएने होएब
पिता, ओही साल एहि पुछआएल भूखंडसँ दूर
नदी मातृक ऐहि देशसँ फराक
कोनो कोनमे बलात् राखल अहाँ
अपन संतानक मुस्कानकं मोन पाड़ैत
कतेक काल उदास भेल रही
दोरस बरसातमे मातल एहि
निर्विकार महादेशक व्यथाकें कथामे उतारैत
अहाँ एहि अलंगसँ ओहि अलंग धरि
अपस्याँत दौड़ि रहल छी आ
सृष्टिहंता दावानलसँ
उदासीन गामक लोककें लगातार अरजि रहल छी
अहाँक एहि ऐतिहासिक चिंतामे शामिल रहितहुँ
हम एतेक निर्विकार किए छी ?
रातुक अन्हार आ दिनुका एकांतमे
हम जखन-जखन एहि मादे सोचैत छी, लगैए
अपन व्यक्त्विसँ अहाँ
हमरा आप्लावित नहि क’ सकलहुं
पिता, ई कंजूसी किए ?
हमरा लेल अहाँ ने त’
कबीर छी आ ने खाँटी वैद्यनाथ मिश्र
एहि दुनूक बीच कोनो एकटा
प्रतिमा तैयार करबाक अहाँक विफलता
रहरहाँ हमरा टुटबाक बिन्दु धरि पहुँचा दैत अछि
आ एहनामे हमरा बेर-बेर एक्के संग
राहुल आ गोकुल मिश्र मोन पड़ै छथि
पिता, हमरा त’ एहि दुनूक अपेक्षा रहै अहाँसँ
एहि विशाल वटवृक्षक छाहरिमे
नवगछुली जकाँ ठाढ़ हम
अपन चानि पर गर्म चुम्बन चाहैत छी
अहाँक एकटा अबोध संतान हम
अपन पीठ पर पिताक तरल स्पर्श चाहैत छी
आङनमे ओंघराइत
एकटा पुचकार चाहैत छी
बड़ स‘ख अछि
कोनो बैसाखी साँझ किंवा अगहनी भोरमे
अहाँ डेन टानि हमरा कान्ह पर बैसा ली
अमैया बसातमे मातल देहकंे झमारैत
एकटा सुपक्क गोपी हमरा हाथमे गोंजि दी
कखनो काल होइए
पिता, सत्ते कहैत छी
एहि विशाल भूखण्ड पर
बालचन किंवा मोहन मांझीकंे तकैत-तकैत
अहाँ हमरो लेल कने फिकिआएल रहितहुँ
बाँहि पकड़ि बाट धरा दितहुँ
नहि, अहाँकें कोनो उपराग नहि देब, मुदा
सबसँ प्राचीन एहि जनतंत्रक
खाँटी जनतांत्रिक व्यक्तित्वक छाहरिमे ठाढ़ रहितहुँ
एकटा तरल स्पर्श
एकटा गर्म चुम्बन
एकटा सम्पूर्ण अकासक
हमर इच्छा आइ फेर बड़ जोर मारि रहल अछि
मोनक एकटा रिक्त कोन भरबा लेल
आइ फेर बड़ व्यग्र अछि