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नहीं, कुछ भी नहीं / रूपम मिश्र

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प्रेम में नहीं बनना था मुझे कभी भी
तुम्हारी पहली और आखिरी प्रेमिका !

मैंने तुमसे प्रेम करते हुए
तुम्हारी सारी पूर्व प्रेमिकाओं से भी प्रेम किया !

जिसने भी तुम्हें प्यार से देखा मैंने उससे भी प्रेम किया !
प्रतिदान की कभी मुझमें चाह ही नहीं हुई
बस, एक साध रही कि एक बार !
तुम एक बार कहते कि
हाँ, सच है ! उस पल मैं तुम्हारे प्रेम में था !
और वही पल मेरे लिए निर्वाण का पल होता !

क्यों कि मैंने तुम्हें ख़ालिस प्रेम किया !
सारे मिलावटी भावों से बचाकर उसे विशुद्ध रखा
इसलिए तुमसे प्रेम करती सारी स्त्रियाँ मुझे प्रिय रहीं

संसार में वो सारे लोग जो तुम्हें प्यार करते हैं
उनके लिए मैं मन से आभारी हो जाती हूँ !
मैं तुम्हारी पहली, दूसरी, चौथी
सारी प्रेमिकाओं के को छूकर देखना चाहती हूँ
जिनके हाथों को तुमने कभी छुआ होगा !

जाने क्यों तुमसे जुड़ा जो भी मुझे मिला
वो तुम्हारी तरह ही ज़हीन मिला
मैं कुछ देर के लिए वहीं रुक जाती हूँ
जहाँ तुम्हारा कोई नाम ले लेता है !
सोचती हूँ — कोई ऐसा मिलता ! जो बस, तुम्हारी ही बात करता!
और मैं आँखें बन्द करके उम्र भर सुनती !