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नहीं / महेश वर्मा
Kavita Kosh से
चलते हुए नहीं
बहुत चलकर रुकने में सुनाई पड़ती हैं
हड्डियों की चरमराहटें।
लू भरे किसी मैदान पर नहीं
ठहरे हुए इस पड़े के नीचे
साँसों में बवंडर की तरह
घूमने लगती है धूल।
किसी साँझ में नहीं
थकन की गोधूलि पर
पुतलियों में डूबता है सूर्य।
त्वचा में नहीं, पहले
आत्मा में ख़त्म होती हैं सिहरनें।
अपने गाँव से बहुत दूर की अपरिचित इस बस्ती में
कोई तैरता है बचपन की नदी में।
दोपहर की प्यास के ऊपर
गिरती है पिछले बरसात की बारिश।