नहीं चुका सकता मैं बदला / हनुमानप्रसाद पोद्दार
नहीं चुका सकता मैं बदला, कर सकता न कभी ऋण-शोध।
बँधा प्रेम-बन्धन, मैं करता स्वतन्त्रता का कभी न बोध॥
सहज स्वतन्त्र रूप मैं रहता स्वयं-रचित सुखमय परतन्त्र।
नहीं छूटना कभी चाहता, नहीं चाहता बनूँ स्वतन्त्र॥
मधुर प्रेम-परवशता मेरी प्रभुतापर प्रभुत्व करती।
रस-स्वरूप मुझमें यह पल-पल मधुर नित्य नव रस भरती॥
भूल सभी सा-भगवा मैं रस-सागर बन जाता।
नयी-नयी रस-सरिताओंसे भर, मैं रससे सन जाता॥
यह मेरा रस-लुध, नित्य रस-मा, सदा रस-पूर्ण स्वरूप।
ब्रह्मा सच्चिदानन्द पूर्णसे नित्य विलक्षण, परम अनूप॥
अतः सिद्ध-मुनि, परमहंस-योगी-विजानी-आत्माराम।
इसे जाननेके प्रयत्नमें रहते लगे सदा अविराम॥
किंतु न पाते इस सागरकी गहराईका थाह कभी।
हार मान, ऊपर आ जाते परम सिद्ध वे लोग सभी॥
निर्मल प्रेम-बन्धसे जो मेरा रसरूप बाँध पाते।
वही विलक्षण इस स्वरूपको रसिक सुजान देख पाते॥
वे फिर इसमें अवगाहन कर करते मधुमय रसका पान।
वे ही फिर मुझको देते मेरा अभिलषित मधुर रस-दान॥