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ना जाने कोई भेष / अज्ञेय

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खेतों में मद और मूसलों की
दोहरी मार से त्रस्त-ध्वस्त
बिछे थे यादव-वीर।
सूर्य अस्त, चन्द्र अस्त,
वनों के महावृक्षों के बीच बढ़ा
-गुफा में फैलते सीरे-सा!-
पसरा था अन्धकार!
और मैं था कि सजग, सावधान,
सधे पाँव, तान धनुष, बाण चढ़ा
खोजता था मृग कृष्णसार!
सुना तभी स्वर शर सन्धान कर
छोड़ दिया बाण!
लक्ष्य-सिद्ध!
यों मुझे मिले वह
खुला गिरा मोर-पंख का किरीट,
वैजयन्ती-माल स्रस्त,
छुटी पड़ी बाँसुरी,
मलिनाते पैरों के सूक्ष्म घाव से निकल रेंग रहा
सृपी शुभ्र, आयु-शेष :
आह, मुझे इस भेस मिले
नारायण : मेरे ही बाण से विद्ध!

अप्रैल, 1976