ना जानै या गरमी का करी! / सुशील सिद्धार्थ
ना जानै या गरमी का करी!
तालन के प्याट तक चिटिकि गे हैं
गइया भइंसी सब बिल्लाय रहीं
‘ई तनके घामे मा घर बइठौ’
चाची लरिकन पर चिल्लाय रहीं
ई ते सैगर धरती का जरी!
आसमान ताकि रहे हैं ककुवा
पानी बरसै तौ हरु मचियावैं
मुलु बदरन क्यार कहूं पता नहीं
सूरज देउता तन मन झरसावैं
ख्यातन की या पियास को हरी!
कंुवन क्यार पानी सब खसकि गवा
बड़का नलु बिगरा को ठीक करै
बिजुलिकि खंभा हैं बिजुली चम्पत
यू गड़बड़ ढर्रा को नीक करै
उम्मीदन कै गगरी कब भरी!
अबकिन अंबिया आईं जप्प थप्प
आंधी उनहुन कइहां झारि दिहिसि
अगले मौसम तक सब कुछु टरिगा
या हवां उमंगै पटकारि दिहिसि
भूसम गद्दारि अंबिया को धरी!
गल्लिन मा लरिका ल्यादा मांगैं
बहुतु भवा अब तौ बदरी छावै
भउजी दुइ झूंकु नाचि लें अब तौ
भइया मोहरे पर आल्हा गावै
बादरु ते जीवन रस कब झरी!