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नाख़ून का वेतन / महेश उपाध्याय
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फ़ाइलों की चेतना से दूर
कोट के ढीले बटन-सा झूलता जीवन
चाहता आवाज़ देना तो
काँप जाता है थके नाख़ून का वेतन
आग होती गई
उछली बूँद की ठण्डक
हीनता की बेल का नासूर
कहाँ से लाए
खुदी के वास्ते चकमक
बुन रही हैं घड़ी की सुइयाँ
नई उलझन
चेतना से दूर ।