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नाज़े-बेगानगी में क्या कुछ था / नासिर काज़मी

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नाज़े-बेगानगी में क्या कुछ था
हुस्न की सादगी में क्या कुछ था

लाख राहें थीं, लाख जलवे थे
अहदे-आवारगी में क्या कुछ था

आंख खुलते ही छुप गई हर शय
आलमे-बेख़ुदी में क्या कुछ था

याद हैं मरहले मुहब्बत के
हाए उस बेकली में क्या कुछ था

कितने बीते दिनों की याद आई
आज तेरी कमी में क्या कुछ था

कितने मानूस लोग याद आये
सुब्ह की चांदनी में क्या कुछ था

रात भर हम न सो सके नासिर
परद-ए-ख़ामुशी में क्या कुछ था।