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नाटक / मंजूषा मन
Kavita Kosh से
रंगमंच पर
मुझे धकेल दिया गया
बिना पूर्व तैयारी के
सामने बैठी दर्शकों की भीड़
चाहती है मुझसे
बेहतरीन भावुक मनोरंजन
मंच के दोनों ओर खड़े हैं दो लोग
पर्दा गिराने को
मेरे पास कितना समय है पता नहीं
क्षण भर घबराकर
मैं शुरू करती हूँ अपनी परफार्मेंस
कुछ भावुक
जिसे देख
दर्शकों की आँखें नम हैं
कुछ उटपटांग जिसे देख
हँसी के ठहाके गूंज उठते हैं
दो पल भूलकर भीड़ को
जोड़ देती हूँ दो पंक्तियाँ
और... दो पल
ऐसे जो हैं मेरी अपनी मर्जी के
अचानक ही
दर्शकों को देख घबरा जाती हूँ
और खड़े कर देती हूँ अपने हाथ
क्षमा मांगती हूँ
और मंच के दोनों ओर खड़े
पर्दे की डोर थामे
पर्दा गिराने वालों को करती हूँ इशारा
कहती हूँ अब बस
खत्म करो ये नाटक...