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नाम का विराम / महेश उपाध्याय
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दिन के इतवार में
कई-कई बार
अपने से जूझते हुए
पूछा है अपना ही नाम
बेनक़ाब घड़ियों के
आस-पास बैठकर
बूँद-बूँद पी डाला
तीस बरस का ज़हर
फिर भी हैं पाँव बेलगाम
अपने से जूझते हुए
प्रश्नों के घेरों को
तोड़ा है टूटकर
फिर भी कुछ प्रश्न
रह गए दूर-दूर पर
पाया है नाम का विराम
अपने से जूझते हुए ।