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नियति / राजेश शर्मा ‘बेक़दरा’

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मैं
जाने कितने रिश्तो में विभाजित
खण्डित...

मगर
उसकी उपस्थिति
जोड़ने लगती है
और फिर
जुड़ने लगता हूँ
दौड़ने लगता हूँ
उसकी ओर
मुक्त होने के लिए

लेकिन...
शनै: शनै:
वो भी टूटने लगी है
मेरी तरह
कई हिस्सों में

और दूर खड़ी नियति
सिर्फ अट्टहास करती रहती है...