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निरंग अभंग / प्रेमरंजन अनिमेष

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रंगों से कितनी आस थी अब टूटने लगी
फागुन की कैसी प्यास थी अब छूटने लगी

आँखों में कोई रंग अगर है तो इसलिए
दुनिया गुलाल झोंक कर अब लूटने लगी

ए प्यार तेरे बिन कभी जीना मुहाल था
अब धीरे-धीरे लत तेरी भी छूटने लगी

सपनों के बाद सच को पड़ा धोना माँजना
हाथों से कितनी जल्दी हिना छूटने लगी

कुछ दिन नयी जगह रही गुमसुम उदास-सी
फिर ज़िन्दगी भी मान गई रूठने लगी

दो चार पल ख़ुशी के कहीं मिल भी जो गए
फिर पीर आ कलेजा वहीं कूटने लगी

रिश्‍ते हक़ीक़तों से रहे उस तरह कहाँ
कुछ ऐसी कर दी दिल से मेरे झूठ ने लगी

पत्थर बना दिया कभी जिस दिल को वक्त ने
कोंपल नई वहाँ से अभी फूटने लगी

लो एक और रात कटी बात - साथ में
'अनिमेष' देख पहली किरण फूटने लगी