निरखि स्याम हलधर मुसुकाने / सूरदास
राग गौरी
निरखि स्याम हलधर मुसुकाने।
को बाँधे, को छोरे इनकौं, यह महिमा येई पै जाने ॥
उपतपति-प्रलय करत हैं येई, सेष सहस मुख सुजस बखाने ।
जमलार्जुन-तरु तोरि उधारन पारन करन आपु मन माने ॥
असुर सँहारन, भक्तनि तारन, पावन-पतित कहावत बाने ।
सूरदास-प्रभु भाव-भक्ति के अति हित जसुमति हाथ बिकाने ॥
भावार्थ :--श्यामसुन्दर को देख कर बलराम जी मुसकरा उठे (और बोले) -`इन्हें कौन बाँध सकता है और कौन इनको खोल सकता है ? अपना यह माहात्म्य (यह लीला) यही समझते हैं । ये ही सृष्टि की उत्पत्ति और प्रलय भी करते हैं । शेष जी सहस्त्र मुखों से इनके सुयश का वर्णन करते हैं । यमलार्जुन के वृक्षों को तोड़ (उखाड़ कर) उनका उद्धार करने के लिए यह सब करना (अपने को बँधवाना) इनको स्वयं अच्छा लगा है । ये असुरों का संहार करने वाले हैं ,भक्तों के उद्धारक हैं, पतित-पावन इनका स्वरुप ही कहा जाता है ।'सूरदास जी कहते हैं कि मेरे स्वामी तो अत्यन्त भावपूर्वक भक्ति करने के कारण (प्रेम परवश) होकर श्रीयशोदा जी के हाथ बिक गये हैं ।