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निराला / शील
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जूझे तुम!
महाकाय संस्कृति के वाहक,
समरांगण खेत रहा।
अतल रहस्यों के अभेद्य-भेद खुले,
भेद मिले भावों के, युग के व्यक्तित्त्व तुले।
जूझे तुम!
लुटा गए अपराजेय पौरुष के मुक्त कोष
रुद्रतोष!
अक्ष्य-आल्हाद भरे अक्षर आलोक खिले
छन्दों की छाँव तले वंशी के स्वर निकले,
वाणी के दीप जले।
जूझे तुम प्रवर!
सदा पदतल-नत अनय रहा
पागल उन्मादी तुम्हें किसने क्या नहीं कहा
शब्दों के सारथी सहास गरल पीते रहे
लोक-व्यथा जीते रहे।
पीढ़ी-दर-पीढ़ी अब-
पूछेंगे लोग-बाग,
गाऐंगे मेघ राग।