निराला को याद करते हुए / राम सेंगर
मुर्दों की अकड़
ज़िन्दों की लचक
दोनों की हक़ीक़त पहचानी ।
कवि था वो बड़ा औघड़दानी ।
रोके जो रहा भटकावों को
सहलाया न रिसते घावों को
महिमामण्डित करने से बचा
निजता के हठीले चावों को
पौरुष का सुभट
मेधा का धनी
व्यवहार की रमक फक़ीरानी ।
कवि था वो बड़ा औघड़दानी ।
गतिरोध के सब बांगुर तोड़े
दौड़ाए अग्निपथ पर घोड़े
विक्षोभ की ताक़त को परखा
संगति से असंगति को जोड़े
छवियों के निकष
तर्कों की धड़क
दमकी है गर्व से पेशानी ।
कवि था वो बड़ा औघड़दानी ।
संसृति के अमेल अरुचिकर को
प्रांजल को, अनुर्वर - उर्वर को
कथनी की परिधि में ले आया
जीवन के समूचे गत्वर को
तत्सम की समझ
तद्भव की पकड़
विन्यास की लय अद्भुत तानी ।
कवि था वो बड़ा औघड़दानी ।
ध्रुव ध्येय थे आत्मोद्घाटन के
अनुभव से कमाए कण-कण के
था उसकी लगी का यह आलम
बेरुख़ ही हुआ हर बंधन के
धारा में रहा
लहरों से लड़ा
मूल्यों के लिए वह अभिमानी ।
कवि था वो बड़ा औघड़दानी ।
रंगों की विविधता थी स्वर में
बसती थी कहन, हर आखर में
था अपने समय से वह आगे
सागर था, समाया गागर में
व्यक्तित्व का था
जो विराटमना
उतरा न विभव का चिलक पानी ।
कवि था जो बड़ा औघड़दानी ।
भाषा की, भाव की, नवता में
शैली की सहज मौलिकता में
प्रतिबद्ध थी जिसकी लौकिकता
फूटी जो शक्ति बन कविता में
प्रतिभा का प्रखर
वाणी का प्रवह
अवदान को भूले प्रज्ञानी ।
कवि था वो बड़ा औघड़दानी ।