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निराशा / नवीन ठाकुर 'संधि'
Kavita Kosh से
जखनी लागै छेलै आमोॅ में मंजर टिकोला,
तखनी नै लागै छेलै मैना, कौआ, कोकिला।
जवेॅ आम हुअेॅ लागलै लाल,
तबेॅ बरसेॅ लागलै ओकरा पर काल
जबेॅ आम पाकी गेलै,
तबेॅ ओकरा पर कौआ लागी गेलै।
मारेॅ लागलै लोल नुकीला।
जखनी लागै छेलै आमोॅ में मंजर टिकोला।
निसहाय आम बेचारा,
कुछूँ नै चलै ओकरोॅ चारा।
आम पावी केॅ चोट
कत्तेॅ छै आदम के जाति में खोट
सोचेॅ हमरोॅ माथा पर मारै छै बसुला।
जखनी लागै छेलै आमोॅ में मंजर टिकोला।
सब्भेॅ रस गिरी गेलै टपकी केॅ,
मैना कौवा टुक-टुक देखै फफकी केॅ।
दःुखित कौआ मैना उड़ी गेलोॅ,
आम भी ‘‘संधि’’ सड़ी गेलोॅ
मैना कौवा रही गेलोॅ होय केॅ बौला।
जखनी लागै छेलै आमोॅ में मंजर टिकोला।