निवेदन-पंचक / भारतेंदु हरिश्चन्द्र
श्याम घन अब तौ जीवन देहु।
दुसह दुखद दावानल ग्रीषम सों बचाइ जग लेहु।
तृनावर्त नित धूर उड़ावत बरसौ कह ना मेहु।
‘हरीचंद’ जिय तपन मिटाओ निज जन पैं करि नेहु॥1॥
श्याम घन निज छबि देहु दिखाय।
नवल सरस तन साँवल चपल पीताम्बर चमकाय।
मुक्तमाल बगजाल मनोहर दृगन देहु बरसाय।
श्रवन सुखद गरजन बंसी धुनि अब तौ देहु सुनाय।
ताप पाप सब जग कौ नासौ नेह-मेह बरसाय।
‘हरीचंद’ पिय द्रवहु दया करि करुनानिधि ब्रजराय॥2॥
श्याम घन अब तौ बरसहु पानी।
दुखित सबै नर नारी खग-मृग कहत दीन सम बानी।
तपत प्रचण्ड सूर निरदय ह्वै दूबहु हाय झुरानी।
‘हरीचंद’ जग दुखित देखि कै द्रवहु आपनो जानी॥3॥
कितै बरसाने-वारी राधा।
हरहु न जल बरसाइ जगत की पाप-ताप-मय बाधा।
कठिन निदाघ लता वीरुध तृन पसु पंछी तन दाधा।
चातक से सब नभ दिसि हेरत जीवन बरसन साधा।
तुम करुनानिधि जन-हितकारिनि दया-समुद्र अगाधा।
‘हरीचंद’ यही तें सब तजि तुव पद-पदुम अराधा॥4॥
जगत की करनी पै मति जैये।
करिकै दया दयानिधि माधो अब तौ जल बरसैये।
देखि दुखी जग-जीव श्याम घन करि करुना अब ऐये।
‘हरीचंद’ निज बिरद याद करि सब को जीव बचैये॥5॥