Last modified on 7 दिसम्बर 2011, at 12:02

निष्करुण उन्मत्त रे मन / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

निष्करुण उन्मत्त रे मन!
अभ्रभेदी वासना-आकांक्षाओं के निकेतन!!
व्योम पर चढ़ कर निरंतर
गर्जता है तू भयंकर
सिंधु-उर में पैठ करता अग्निमय विस्फोट भीषण!!
नष्ट होती सृष्टि सुंदर
देखता तू दृष्टि भर-भर
चाहता रे सृष्टि-हित संसृष्टि का मूलोच्छेदन!!
चाहता पाताल की दृढ़
नींव पर आकाश में चढ़
तू अखिल ब्रह्मांड का अपने लिए साम्राज्य-स्थापन!!
देख कर निज शक्ति अतुलित
देख निज ऐश्वर्य अर्जित
फूलता तू, मधुर लगता है जगत का करुन क्रंदन!!
किंतु क्या सोचा कभी यह
विश्व का संचित विभव यह
टिक सकेगा? स्वप्न केवल! अंत तेरा? धूलि का कण!!