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निष्ठुर आली / उर्मिल सत्यभूषण

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निष्ठुर आली किस मस्ती में
किन सपनों में भूल रही
औरों को पीड़ा दे दे कर
सुख का झूला झूल रही
जाकर पूछो उन फूलों से
जो तुमने कल तोड़े थे
गंध उड़ गई, झड़ी पत्तियां
छिलछिल छाले फोड़े थे
अरी बाबरी, भूल तुम्हारी
चुमती बनकर शूल रही
माना जिं़दगी की राह बीहड़
लेकिनएक अकेली हो क्या?
अनजानी पहचाने गूंथलो
पंथ सरल बन जायेगा
चट्टानों से टकराये जो
राह उसके अनुकूल रही
तेरे दुःख क्या दुःख हैं पगली
यह दुनिया कितना सहती है
चौतरफा दुःख दैन्य गरीबी है
पीड़ा नदियां बहती है
तू क्यों केवल अपने मन के
सुख-दुःख में मशगूल रही?