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निष्फल कामना / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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सूरज डूब रहा है
वन में अंधकार है, आकाश में प्रकाश.
संध्या आँखें झुकाये हुए
धीरे धीरे दिन के पीछे चल रही है.
बिछुड़ने के विषाद से श्रांत सांध्य बातास
कौन जाने बह भी रहा है की नहीं .
मैं अपने दोनों हाथों में तुम्हारे हाथ लेकर
प्यासे नयनों से तुम्हारी आँखों के भीतर झाँक रहा हूँ .

खोज रहा हूँ की तुम कहाँ हो,
कहाँ हो तुम !
जो सुधा तुममें प्रच्छन्न है
कहाँ है वह !
जिस प्रकार अँधेरे सांध्य गगन में
स्वर्ग का आलोकमय असीम रहस्य
विजन तारिकाओं में झिलमिलाता है,
उसी प्रकार आत्मा की रहस्य-शिखा झिलमिलाती है
इन नयनों के निविड़-तिमिर दल में.
इसीलिए अपलक देख रहा हूँ.
इसीलिए प्राण-मन, सबकुछ लेकर
अतल आकांक्षा के पारावार में
दुकी लगा रहा हूँ .
तुम्हारी आँखों के भीतर,
हँसी की ओट में,
वाणी के सुधा-श्रोत में
तुम्हारे मुख पर छाई हुई करुण शांति के तल में
तुम्हें कहाँ पाऊं--
इसी को लेकर है यह रोना-धोना.

किन्तु रोना-धोना व्यर्थ है.
यह रहस्य यह आनंद
तेरे लिये नहीं है ओ अभागे !
जो प्राप्त है वही अच्छा है--
तनिक सी हँसी, थोड़ी सी बात,
टुक चितवन, प्रेम का आभास.
तू समग्र मानवता को पाना चाहता है,
यह कैसा दुःसाहस है !
भला तेरे पास क्या है !
तू क्या देने पायगा.
क्या तेरे पास अनंत प्रेम है?
क्या तू दूर कर सकेगा जीवन का अनंत अभाव?
उदार आकाश भर लोक-लोकालयों की यह असीम भीड़,
यह घना प्रकाश और अंधकार ,
कोटि छाया-पथ, माया-पथ
दुर्गम उदय-अस्ताचल
क्या इन सबके बीच से रास्ता बनाकर
रात-दिन अकेला और असहाय
चिर सहचर को साथ लेकर चल सकेगा?
जो स्वयं श्रांत, कातर, दुर्बल और म्लान है
जो भूख-प्यास से व्याकुल है,
अंधा है,
और जो दिशा भूल गया है,
जो अपने दुःख के भार से पीड़ित और जर्जर है
भला वह हमेशा के लिये किसे पा लेना चाहता है !

आदमी कोई भूख मिटाने वाला खाद्य नहीं है,
कोई नहीं है तेरा या मेरा .
अत्यंत यत्नपूर्वक बहुत चुपचाप
सुख में,दुःख में,
निशीथ में ,दिवस में,
जीवन में, मरण में,
शत ऋतु आवर्तन में
शतदल-कमल
विकसित होता है !
तुम उसे सुतीक्ष्ण वासना की छुरी से
काटकर ले लेना चाहते हो?
उसका मधुर सौरभ लो
उसका सौन्दर्य-विकास निहारो,
उसका मकरंद पियो,
प्रेम करो, प्रेम से शक्ति लो--
उसकी ओर मत ताको .
मानव की आत्मा आकांक्षा का धन नहीं है .

संध्या शांत हो गई है,
कोलाहल थम गया है .
आँख के जल की वासना की आग बुझा दो.
चलो धीरे-धीरे घर लौट चलें.