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नींद का क़ातिल / पंछी जालौनवी
Kavita Kosh से
मुझे हमेशा के लिये
जागना था
सो मैंने
अपने जिस्म का खोल
बिस्तर के हवाले किया
ताकि मेरे जाने की
आहट से
जाग न जायें
मेरी चादर
और तकिये पे
कच्ची नींद में
सोये हुये
सिलवटों का सुकूत
और चल दिया
उन आहटों के साथ
जिन्हें मैं जानता तक ना था
मुझे हमेशा के लिये जागना था
सो मैंने कल तन्हा पाकर
अपने किसी ख़्वाब में
नींद की पीठ पे
छुरा घोंप दिया
अब मैं हमेशा जागूंगा
इस अहसास के साथ
कि मैं ख़ुद
अपनी नींद का क़ातिल हूँ
और जागूंगा
इस अफ़सोस के साथ
कि अब मेरी आँखों में
वो ख़्वाब
कभी नहीं आयेंगे
जिन्होंने
मेरी नींद को क़त्ल होते
अपनी आँखों से देखा था॥