भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नींद के भीतर-बाहर / नीरज दइया
Kavita Kosh से
उचटी हुई नींद के बाद
जब लगती है आंख
अटकी रहती हो तुम
भीतर-बाहर
जैसे नींद में
वैसे ही जागते हुए।
नहीं चलता मेरा कोई बस
मैं जान ही नहीं पाया-
कब उचटी नींद
कब लगी आंख!