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नेह की पाती अनपढ़ी / पंख बिखरे रेत पर / कुमार रवींद्र

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क्या गज़ब है
सो रहे हैं छाँव-ओढ़े घर
धूप सिर पर चढ़ी

काफिले अंधे शहर के
लौट आये हैं
फूल की पगडंडियों पर
जड़े साये हैं

नींद में डूबे दरो-दीवार
हुई ऊँची गढ़ी

बस्तियों में
आग के जलसे हुए हैं
नये सूरज पर चढ़े
गहरे धुएँ हैं

काँच की मीनार से दिन की
और दूरी बढ़ी

क्या करें हम
चौखटें सारी जली हैं
खिड़कियाँ टूटीं
हवाएँ जंगली हैं

ढहे घर में नेह की पाती
मिली अनपढ़ी